दिल्ली सरकार द्वारा हाल ही में लागू की गई “नो-फ्यूल फॉर ओल्ड व्हीकल्स” नीति को जनता के भारी विरोध के बाद मात्र तीन दिनों के भीतर वापस ले लिया गया है। इस नीति के अंतर्गत राजधानी में 10 साल पुराने डीजल और 15 साल पुराने पेट्रोल वाहनों को पेट्रोल पंपों से ईंधन नहीं देने का आदेश जारी किया गया था। यह फैसला वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने की दिशा में उठाया गया था, लेकिन इसका व्यापक असर आम जनता पर देखने को मिला।
कबाड़ की कीमत पर बिकी महंगी गाड़ियाँ
नीति लागू होने के साथ ही लाखों वाहन स्वामियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। रिपोर्ट्स के अनुसार, दिल्ली में लगभग 60 लाख ऐसे वाहन पंजीकृत हैं जो इस नीति से प्रभावित हो सकते थे, जिनमें करीब 20 लाख कारें शामिल हैं। कई लोगों ने अपने अच्छे हालात में चल रहे वाहन औने-पौने दामों में बेचने शुरू कर दिए। सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो वायरल हुए जिनमें लोग मर्सिडीज और इनोवा जैसी महंगी गाड़ियाँ कबाड़ की कीमत पर बेचते दिखे।
वाहन मालिक फैसले के खिलाफ
स्थिति को देखते हुए लोकल सर्कल्स द्वारा किए गए एक सर्वे में यह सामने आया कि 79% वाहन मालिक इस फैसले के खिलाफ थे। खासकर दोपहिया वाहन चालक और मध्यम वर्ग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। लोगों की मांग थी कि सरकार अचानक प्रतिबंध लगाने की बजाय विकल्पों पर विचार करे, जैसे पीयूसी चेक को और सख्त बनाना, वाहन फिटनेस टेस्ट लागू करना और स्क्रैप पॉलिसी को प्रभावी बनाना।
वाहनों की फिटनेस है जरुरी
विशेषज्ञों ने भी चेतावनी दी थी कि नीति भले ही उद्देश्यपूर्ण हो, लेकिन उसका क्रियान्वयन व्यावहारिक नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि केवल पुराने वाहनों को हटाना पर्याप्त नहीं है; हर वाहन की फिटनेस, प्रदूषण स्तर और रखरखाव ज्यादा मायने रखता है।
नीति निर्माण में जनता की भागीदारी है जरूरी
दिल्ली सरकार ने अब यह स्पष्ट किया है कि वह नीति की समीक्षा करेगी और भविष्य में कोई भी बड़ा फैसला लेने से पहले व्यापक जन-सलाह लेगी। इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि पर्यावरण संरक्षण जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है नीति निर्माण में जनता की भागीदारी।